19-06-20233 से 54 साल पहले १४ जुलाई १९६९ देश के 14 प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण किया गया था . भारत के सबसे बड़े अधिकारी संगठन ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडरेशन (AIBOC) के द्वारा इस अवसर पर बैंक राष्ट्रीयकरण दिवस मनाया गया. दिन की शुरुआत पटना के गाँधी मैदान में प्रभात फेरी के साथ हुयी जिसमे करीब २०० बैंक अधिकारी सम्मिलित हुए तथा बैंक के निजीकरण के प्रयासों के खिलाफ नारेबाजी की. प्रभात फेरी का नेतृत्व ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडरेशन (AIBOC) बिहार राज्य इकाई के सचिव श्री अमरेश विक्रमादित्य, अध्यक्ष श्री गणेश कुमार पाण्डेय तथा चेयरमेन श्री कुमार राजेश सुमन ने किया. ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडरेशन (AIBOC) बिहार इकाई द्वारा हरित पर्यावरण के लिए ५०० पौधों का वितरण किया गया . साथ ही साथ दीघा स्थित बैंक कॉलोनी मे वाटर कूलर भी लगवाया गया.
श्री विक्रमादित्य के अनुसार सरकार के बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले ने करोड़ों भारतीयों की पहुंच बैंकों तक कर दी। सभी कार्यक्रम मे ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडरेशन (AIBOC) बिहार इकाई के निकेश नन्दन, मुकेश कुमार, लक्ष्मी पासवान, रंजन कुमार सिंह, अरिजीत बोस इत्यादि सम्मिलित हुए. कभी मैट्रो और बड़े शहरों तक ही सीमित रहने वाले सरकारी बैंक गांव-कस्बे तक पहुंचने लगे। सरकारी योजनाओं को लागू करने में ये बैंक सबसे आगे रहे। लेकिन अभी भी इनकी चुनौतियां खत्म नहीं हुई है।
साल 1969 की बात है। आज ही के दिन तत्कालीन केंद्र सरकार ने पहली बार देश के 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण (Nationalization of Banks) या कह लीजिए सरकारीकरण किया था। इसके बाद साल 1980 में फिर से 6 बैंकों को सरकार ने अपने अधीन कर लिया था। इसके बाद देश के गरीब-गुरबों तक को बैंक में प्रवेश मिला। शहरों से निकल कर बैंक गांव और कस्बे में पहुंचे। लेकिन अब सरकारी बैंकों और उनमें काम करने वालों की दशा कुछ ठीक नहीं है। देश में सरकारी बैंकों में काम कर रहे लगभग तीन लाख अधिकारियों का प्रतिनिधित्व करने वाला संगठन ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कंफेडरेशन (AIBOC) ने इस ऐतिहासिक निर्णय की सराहना तो की है। साथ ही संगठन ने कहा है कि राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका निभाने के बावजूद इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक निजीकरण के असली खतरे से जूझ रहे हैं।
क्यों हुआ था बैंकों का राष्ट्रीयकरण
आजादी के बाद ऐसा देखा गया कि बैंक प्रबंधन और उद्योगपितयों के बीच एक तरह से सांठगांठ है। इस वजह से आम आदमी को बैंक की पर्याप्त सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं। किसानों के लिए बैंक ऋण मिलना सपना है। ऋण जमा अनुपात कम था। बैंकों की अधिकतर शाखाएं मैट्रो शहरों या फिर शहरों में केंद्रित थीं। गरीब बैंकों तक पहुंच नहीं सकते थे। इसी को देखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी। फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रूपया डूब गया था। उधर, कुछ बैंक काला बाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके।
19 जुलाई 1969 को सरकार ने 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इसके बाद साल 1980 में फिर से छह बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8,322 शाखाएं थीं। 2023 के आते आते यह आंकड़ा 85 हजार को पार कर गया है। किसानों को बैंकों से लोन मिलने लगा। प्राथमिकता वाले क्षेत्र चुने गए। राष्ट्रीयकरण के बाद कृषि क्षेत्र, एमएसएमई, छोटे कारोबारी, स्वरोजगार आदि को प्रोत्साहन मिला। आम आदमी के बच्चों को शिक्षा ऋण मिलना शुरू हुआ। एक तरह से कहें तो यह फैसला देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और करोड़ों भारतीयों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने में सहायक रहा।
सरकारी योजनाओं को लागू करने में अग्रणी
बैंक का राष्ट्रीयकरण होने से कई और फायदे हुए। जिन्हें बैंकों में घुसने नहीं दिया जाता था, उनके लिए लोन मेले लगने लगे। इससे छोटे छोटे लोग भी बैंक में खाता खुलवा कर बचत करने को प्रोत्साहित हए। साथ ही सरकार की योजनाओं को बेहतर तरीके से लागू करने में भी मदद मिली। बैंकों में बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाओं को देने का दौर भी शुरू हुआ। जनधन खाता खोल कर गरीब से गरीब लोगों का फाइनेंसियल इंक्लूजन किया गया। सरकारी बैंक समाज के निचले तबके के लिए कितने सहायक रहे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने सात ही वर्षों के दौरान 23 लाख करोड़ रुपये के 43 करोड़ से ज्यादा मुद्रा लोन वितरित किए।
एआईबीओसी के बिहार राज्य सचिव अमरेश विक्रमादित्य का कहना है कि एक ओर तो हम बैंकों के राष्ट्रीयकरण की 55वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, दूसरी तरफ बैंक कर्मचारियों की जायज मांगों को नजरंदाज किया जा रहा है। काफी समय से बैंकों में पांच दिन के सप्ताह की मांग की जा रही है, लेकिन उसे नहीं माना गया है। वहीं बीमा उद्योग में पांच दिन के सप्ताह को मंजूरी दे दी गई है। इसकेस अलावा बैंक अधिकारी और कर्मचारियों के लिए पर्याप्त मुआवजे की अभी तक व्यवस्था नहीं हो पाई है। सरकार बैंको के निदेशकमंडल में अधिकारी और कर्मचारी निदेशक की नियुक्ति २०१४ के बाद से नहीं कर रही है जबकि इस सम्बन्ध में उच्च न्यायलय द्वारा निर्देश दिया जा चूका है की निदेशक मंडल में कर्मचारी अधिकारी प्रतिनिधि निदेशक की नियुक्ति की जाये. । निदेशक मंडल में नियुक्ति नहीं किया जाना बैंकिंग समुदाय के समर्पण और कड़ी मेहनत को कमजोर करता है।